श्री शत्रुंजय गिरिराज का 16वां उद्धार

श्री शत्रुंजय गिरिराज का 16वा उद्धार
आचार्य श्री धर्मरत्नसूरि महाराज स्वयं के श्रमण परिवार के साथ रणथंभोर सूबे के मंत्री धनराज पोरवाड के ' छ' री पाळित यात्रा संघ के साथ मे मारवाड , मेवाड के जैन तीर्थो की यात्रा करने के लिए पधार्रे त्तभी आप चित्तोड भी पधारे । चितोड नगर के महाराजा राणा सांगा ने उनका बहुत ही भव्य सामैया किया, अौर धर्मवाणी का नित्य श्रवण करने लगे । सूरिजी के उपदेश से राणा ने शिकार आदि व्यसनो का त्याग किया ।
राणा के साथ चित्तोड नगर के शेठ तोलाशाह अपने परिवार के साथ धर्म श्रवण करने हेतु आते थे । तोलाशाह के पांच पुत्र थे । रतनाशाह , पोमाशाह , दशरथशाह , भोजशाह और कर्माशाह.
तोलाशाह ने एक बार दोपहर के समय मे छोटे पुत्र कर्माशाह को लेकर आचार्यश्री के पास मे आये , अौर पुछा कि
“ मेरे मन मे निश्चित किया हुआ कार्य होगा या नही ? “ आचार्यश्री ने कहा कि काम होगा , परंतु तुम्हारे छोटे पुत्र कर्माशाह अौर मेरे शिष्य के हाथो से होगा । "
समयानंतर से आचार्य धर्मरत्नसूरि अौर तोलाशाह के परिवार के संबंध गहरे बनते गये । तोलाशाह के आग्रह से श्री विनयमंडन पाठक वगैरहो ने रोकी आचार्यश्री ने विहार किया । कर्माशाह के परिवार ने उनके पास से शास्त्राभ्यास किया नव तत्व , भाष्य आदि का अघ्यन किया । श्री विनयमंडन पाठक को गुरूपद पर स्थापित किया - गुरु ने चिंतामणी मंत्र प्रदान किया ।
बादशाह मुजफर के शाहजादे का बहादूरशाह नाम था । वो अपने पिता से गुस्सा होकर चितोड आया था ।तोलाशाह का अतिथि बना । कर्माशाह और बहादूरशाह के बिच मे बहुत ही गहरी दोस्ती हो गयी थी । . बहादूरशाह ने गुजरात जाने के पहेले कर्माशाह के पास से हाथ खर्चे के लिए रकम मांगी और कर्माशाहे ने बिना किसी शर्त के उसको 1 लाख रूपिये दे दिए । .
बहादूरशाह संवत 1583 मे महा सुद 14 के दिन गुजरात का बादशाह बना ।
स्वयं का पुत्र कर्माशाह शत्रुंजय का उद्धार करेगा एेसी शुभ भावना के साथ तोलाशाह का स्वर्गवास हुआ । कर्माशाह ने आचार्यश्री की भविष्यवाणी के अनुरूप पिता की आज्ञा के मुताबिक शत्रुंजय का बडा उद्धार करवाने का निर्णय लिया । तपागच्छ के आचार्य विजय दानसूरि जब चितोड आये तब कर्माशाह को तीर्थ का जल्द से जल्द करवाने हेतु उपदेश देकर ज्यादा उत्साहित कर के गये थे ।
बहादूरशाह का अहमदाबाद के बादशाह बनने की खबर मिलते ही कर्माशाह अहमदाबाद आये । बादशाह को मिले और शत्रुंजय के उद्धार कर वहा आदिनाथ भगवान की प्रतिमा प्रतिष्ठित करने हेतु आदेश - फ़रमान हासिल किया । वहाँ से खंभात गये और श्री विनयमंडन म सा को पालिताणा की ओर विहार करने की विनंती की ।
कर्माशाह सिद्धगिरि आते है । आगे जाते रास्ते मे वलभीपुर से आगे जेसे ही गिरिराज के दर्शन हुए तभी उन्होने सोना रूपा के फूल और रत्नो से गिरिराज को वधाया । गरीबो को दिल खोलकर दान देते है । गिरिराज की स्तुति भक्ति करते है । गिरिराज पर जाकर गोठी को दान दक्षिणा देकर ख़ुश कर वस्तुपाळ मंत्रीश्वर ने दी हुई शिलाओ को प्राप्त करते है ।
शंत्रुजय उद्धार के कार्य की रूपरेखा
बनाते है । सुकान विनयमंडन पाठक संभाळते है । श्री विवेक धीर शिल्पी को नियुक्त करते है । ऐसा महान भगीरथ कार्य निर्विघ्न परिपूर्ण हो उस लिए श्री रत्नसागर अौर श्री जयमंडन गणि एेसे 2 मुनिवर छ महिने उपवास करते है ।
ऐसे शक्रवर्ति प्रतिष्ठा का मूहुर्त का निर्णय श्री विद्यामंडनसूरिजी अनेको ज्योतिषीयो को साथ मे रख कर करते है ।
विधि विधान मे जरूरी औषधिओ के लिए अनेको वैध , अनुभवी वृद्ध पुरुषो अौर भील्लो से पूछताछ कर भरपुर द्रव्य खर्च कर मँगवाते है ।
कर्माशाह की उदारता से 2 महत्व के कार्य हुए थे । एक जो सूरजकुंड छुपा देने मे आया था उसे भरपुर दाण देकर खुल्ला करवाया और दुसरा , गिरिराज पर राजा का आधिपत्य एेसा था कि 1 - 1 यात्री के पासे से 100 - 100 मुद्रा लेकर थोडे ही क्षणो के लिए दर्शन करने देते थे , उसे कर्माशाह ने राजा को सुवर्णगिरि भेट देकर सभी यात्रा करने वालों के लिए बिना किसी प्रकार का शुल्क दिए बिना यात्रा शुरु करवायी । ये दो कार्यो से कर्माशाह बहुत ही यशस्वी हुए ।
उपाध्याय विनयमंडन अौर पंन्यास विवेकधीरगणि की देखरेख मे नीचे महात्मा बाहडे बना हुए मूळतीर्थ प्रासाद का जीणोद्धार शरू हुआ ।
कर्माशाहे संवत 1587 मे , वैशाख वद 6 को रविवार धन लग्न मे शुद्ध नवांश मे शत्रुंजय तीर्थ मे जीनोद्धार कर के प्राचीन जिन प्रासाद मे आचार्य श्री धर्मरत्नसूरि के पट्टधर आचार्य विद्यामंडनसूरि आदि के हाथो भगवान आदीश्वर की नये जिन प्रतिमा की प्रतिष्ठा करवायी ।
दादा की प्रतिष्ठा हुई तब श्रद्धा भक्ति से उछळते ह्रदय से श्रावक वर्ग प्रसन्न हुआ , सभी ने प्रभु भक्ति मे तल्लिन बन गये थे। सौरभभरे , पुष्पो वाले कपूर , केसर मिश्रित जळ का चारो तरफ छंटकाव करने मे आया था । हवा मे , जय जय श्री आदिनाथ शब्दो का गुंजन हो रहा था । उस समय समकित द्रष्टि देवो ने प्रभु के बिंब मे संक्रांत हुआ प्रभु ने सात बार श्वासोश्वास लिया था ।
इस प्रकार से कर्माशाह ने शत्रुंजय का सोळवां भव्य और विशाल उद्धार करवाया था ।
जय जय श्री आदिनाथ
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Пікірлер: 1

  • @poonamjain3798
    @poonamjain3798 Жыл бұрын

    Good information.Thanks.

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