🥺गौरा पंत' शिवानी जी द्वारा लिखी खूबसूरत कहानी"अपराजिता"

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गौरा पंत' शिवानी जी द्वारा लिखी खूबसूरत कहानी "धुंआ" @UNKIKALAMMERIAAWAJ
हिंदी साहित्य जगत की अग्रणी उपन्यासकार स्व. गौरा पंत ‘शिवानी’। शिवानी जी एक ऐसी लेखिका थी, जिनकी हिंदी, संस्कृत, गुजराती, बंगाली, उर्दू तथा अंग्रेज़ी पर अच्छी पकड थी और जो अपनी कृतियों में उत्तर भारत के कुमायूँ क्षेत्र के आसपास की लोक संस्कृति की झलक दिखलाने और किरदारों के बेमिसाल चरित्र चित्रण करने के लिए जानी गई।
महज १२ वर्ष की उम्र में पहली कहानी प्रकाशित होने से लेकर उनके निधन तक उनका लेखन निरंतर जारी रहा। उनकी अधिकतर कहानियां और उपन्यास नारी प्रधान रहे। इसमें उन्होंने नायिका के सौंदर्य और उसके चरित्र का वर्णन बड़े दिलचस्प अंदाज में किया। उनकी कृतियों से यह झलकता है कि उन्होंने अपने समय के यथार्थ को बदलने की कोशिश नहीं की। शिवानी जी की कृतियों में चरित्र चित्रण में एक तरह का आवेग दिखाई देता है। वह चरित्र को शब्दों में कुछ इस तरह पिरोकर पेश करती थीं जैसे पाठकों की आंखों के सामने राजारवि वर्मा का कोई खूबसूरत चित्र तैर जाए।
शिवानी जी का कार्यक्षेत्र मूलरूप से कुमाऊँ क्षेत्र की निवासी के रूप में बीता। शिवानी जी की शिक्षा शांति निकेतन में और जीवन का अधिकांश समय शिवानी ने लखनऊ में बिताया। शिवानी जी की माँ गुजरात की विदुषी, पिता अंग्रेज़ी के लेखक थे। पहाड़ी पृष्ठभूमि और गुरुदेव की शरण में शिक्षा ने शिवानी की भाषा और लेखन को बहुयामी बनाया।बांग्ला साहित्य और संस्कृति का शिवानी पर गहरा प्रभाव पड़ा।
उन्होंने संस्कृत निष्ठ हिंदी का इस्तेमाल किया। जब शिवानी जी का उपन्यास कृष्णकली [धर्मयुग] में प्रकाशित हो रहा था तो हर जगह इसकी चर्चा होती थी। मैंने उनके जैसी भाषा शैली और किसी की लेखनी में नहीं देखी। उनके उपन्यास ऐसे हैं जिन्हें पढकर यह एहसास होता था कि वे खत्म ही न हों। उपन्यास का कोई भी अंश उसकी कहानी में पूरी तरह डुबो देता था। शिवानी के लेखन तथा व्यक्तित्व में उदारवादिता और परम्परानिष्ठता का जो अद्भुत मेल है, उसकी जड़ें, इसी विविधतापूर्ण जीवन में थीं। शिवानी की पहली रचना अल्मोड़ा से निकलने वाली ‘नटखट’ नामक एक बाल पत्रिका में छपी थी। तब वे मात्र बारह वर्ष की थीं। इसके बाद वे मालवीय जी की सलाह पर पढ़ने के लिए अपनी बड़ी बहन जयंती तथा भाई त्रिभुवन के साथ शान्तिनिकेतन भेजी गईं, जहाँ स्कूल तथा कॉलेज की पत्रिकाओं में बांग्ला में उनकी रचनाएँ नियमित रूप से छपती रहीं। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर शिवानी को ‘गोरा’ पुकारते थे। रवीन्द्रनाथ टैगोर की सलाह को कि हर लेखक को मातृभाषा में ही लेखन करना चाहिए, शिरोधार्य कर शिवानी ने हिन्दी में लिखना प्रारम्भ किया। ‘शिवानी’ की एक लघु रचना ‘मैं मुर्गा हूँ’ १९५१ में ‘धर्मयुग’ में छपी थी। इसके बाद आई उनकी कहानी ‘लाल हवेली’ और तब से जो लेखन-क्रम शुरू हुआ, उनके जीवन के अन्तिम दिनों तक चलता रहा। उनकी अन्तिम दो रचनाएँ ‘सुनहुँ तात यह अकथ कहानी’ तथा ‘सोने दे’ उनके विलक्षण जीवन पर आधारित आत्मवृत्तात्मक आख्यान हैं।

Пікірлер: 2

  • @archanasingh3997
    @archanasingh39973 күн бұрын

    Bahut hi pyari kahani

  • @user-rk7le4ot2y
    @user-rk7le4ot2y10 күн бұрын

    ❤❤❤❤❤❤❤❤❤❤

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